"अपनी ज़मीन के लिए तो हम अपनी जान भी दे देंगे. कहाँ जाएँगे हम लोग?"
"हमारा सब कुछ सियांग नदी पर ही निर्भर है. इसीलिए हम इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं."
"अगर डैम बन गया यहाँ पर तो हमारे लिए सब कुछ ख़त्म है."
ये आवाज़ें अरुणाचल प्रदेश के सियांग और अपर सियांग ज़िलों में रहने वाले उन लोगों की हैं जो डरे हुए हैं.
इस डर की वजह है वह बांध जिसे भारत इस इलाक़े से बहने वाली सियांग नदी पर बनाने की योजना बना रहा है.
सियांग वही नदी है जो तिब्बत में यारलुंग त्सांग्पो के नाम से निकलती है. यह भारत में अरुणाचल प्रदेश के रास्ते दाख़िल होती है.
भारत में आगे बह कर यही नदी ब्रह्मपुत्र बन जाती है. बांग्लादेश तक पहुँचते-पहुँचते इसका नाम जमुना हो जाता है.
चीन तिब्बत में इसी नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा हाइड्रो-पावर डैम बनाने की तैयारी में है.
जवाब में भारत अरुणाचल प्रदेश में इसी नदी पर एक बड़ा बांध बनाने की योजना पर काम कर रहा है.
कागज़ों पर ये फ़ैसले रणनीति और बिजली बनाने से जुड़े हुए हैं. हालाँकि, जो लोग पीढ़ियों से इस नदी के आसपास रह रहे हैं, उनके लिए इन फ़ैसलों का असर कहीं ज़्यादा निजी और अनिश्चितताओं से भरा हुआ है.
तिब्बत में चीन का बांध
इस साल जुलाई में चीन के प्रधानमंत्री ली छियांग ने तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो नदी पर दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रो-पावर डैम के निर्माण की शुरुआत की.
चीन का कहना है कि 60 हज़ार मेगावॉट क्षमता वाले इस बांध से पैसे की बचत होगी और साफ़ ऊर्जा मिलेगी.
क़रीब 167 अरब डॉलर की लागत वाली यह परियोजना चीन के 'थ्री गॉर्जेस डैम' से क़रीब तीन गुना बड़ी है. एक अनुमान के मुताबिक 'थ्री गॉर्जेस डैम' की वजह से क़रीब 10 लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हुए थे.
जानकार चीन के इस बड़े बांध निर्माण के बारे में चिंतित हैं क्योंकि यह इलाक़ा पर्यावरण के लिहाज़ से नाज़ुक और भूकंप के लिहाज़ से सक्रिय माना जाता है.
तिब्बत उस इलाक़े में है जहां भारत और यूरेशिया की ज़मीन की प्लेटें आपस में टकरा रही हैं. इनकी वजह से पिछले सौ साल में यहाँ कई बड़े भूकंप आ चुके हैं.
चीन का कहना है कि यह प्रोजेक्ट उन जगहों से दूर रहेगा जहाँ भूकंप आने की आशंका ज़्यादा है.
हालाँकि, चीन के बांध से जुड़ी कई बातें अभी भी साफ़ नहीं हैं. जैसे, स्थानीय लोग इस परियोजना को कैसे देख रहे हैं और इससे कितने लोग विस्थापित हो सकते हैं.

साल 2024 की एक बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ तिब्बत में एक बांध के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए थे. इसके बाद कई सौ प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई हुई थी. लोगों को फ़िक्र थी कि बांध बनने से कई गाँव, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण कई इलाक़े डूब जाएँगे.
यारलुंग त्सांग्पो नदी की शुरुआत पश्चिमी तिब्बत के बर्फ़ से ढके आंग्सी ग्लेशियर से होती है. यहीं से यह नदी पूर्व दिशा में अपना लंबा सफ़र शुरू करती है. पहाड़ों और घाटियों को पार करते हुए यह तिब्बत में क़रीब 17 सौ किलोमीटर तक बहती है.
फिर कुछ बहुत ख़ास होता है. यारलुंग त्सांग्पो अचानक एक यू-टर्न लेती है और सैकड़ों मीटर नीचे गिरकर एक ऐसी जगह पहुँचती है जिसे 'ग्रेट बेंड' कहा जाता है. प्राकृतिक ऊर्जा से भरी यही वह जगह है, जहाँ चीन ने अपना नया बाँध बनाने का फ़ैसला किया है.
चीन ने पहली बार साल 2020 में 'ग्रेट बेंड' पर बांध बनाने की परियोजना का एलान किया था. अब भारत ने अरुणाचल प्रदेश में एक बड़ा बांध बनाने का काम तेज़ कर दिया है. इसकी लागत क़रीब 13 अरब डॉलर होगी. भारत के इस बांध से 11,200 मेगावाट बिजली पैदा होने की उम्मीद है.

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अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी पर बांध बनाने के पीछे भारत के दो मक़सद हैं- बिजली पैदा करना और बाढ़ के ख़तरे से निपटना.
लेकिन ज़मीन पर इस परियोजना को भारी विरोध का सामना कर पड़ रहा है. स्थानीय आदिवासी समुदायों को डर है कि सियांग नदी पर बांध बनने से इस इलाक़े के क़रीब 35 गाँव पानी में डूब सकते हैं. इसकी वजह से हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है.
अपर सियांग ज़िले के गेकु गाँव में रहने वाले मिंगकैंग पारोंग कहते हैं, "हम लोग किसान हैं. खेती करते हैं. बाग़वानी करते हैं. अगर यह मल्टीपरपज़ डैम बन गया तो हम लोगों पर बहुत असर पड़ेगा. बहुत नुक़सान होगा. हम लोगों की ज़मीन पानी में डूब जाएगी. हम लोग कहाँ रहेंगे?"

'सियांग इंडिजिनस फ़ार्मर्स फ़ोरम' नाम का एक स्थानीय संगठन प्रस्तावित डैम के ख़िलाफ़ विरोध की अगुवाई कर रहा है.
फ़ोरम के महासचिव लिकेंग लिबांग कहते हैं, "ज़ाहिर है लोग अब आक्रामक मूड में हैं. इस परियोजना से प्रभावित परिवारों के बार-बार अनुरोध और आवेदन के बावजूद सरकार जानबूझकर इन ज़मीनी हक़ीक़त की अनदेखी कर रही है और उन्हें दबा रही है."
गेकु गाँव में ही रहने वाले ओरिक ताकू कहते हैं, "हम शांति और सद्भाव से रहना चाहते हैं. इसलिए मैं सरकार से अनुरोध करता हूँ कि हम जैसे रह रहे हैं, वैसे ही रहने दें. अपनी ज़मीन के लिए तो हम अपनी जान भी दे देंगे. कहाँ जाएँगे हम लोग?"

सरकार सियांग नदी पर बांध बनाने के लिए तीन जगहों पर विचार कर रही है— पारोंग, दीते दिमे और उगेंग.
इस प्रोजेक्ट की प्री-फीज़िबिलिटी रिपोर्ट बनाने का काम शुरू करने के लिए सरकारी अधिकारी इस साल मई में एक जगह पर ड्रिलिंग मशीनें लेकर पहुँचे तो लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया.
गेकु में ही रहने वाली रिलुक पारोंग कहती हैं कि सरकार स्थानीय लोगों की बात सुनने के बजाय उनसे ज़बरदस्ती कर रही है.
वह कहती हैं, "इस डैम के बारे में सुनने से भी हमें ग़ुस्सा आता है और तनाव होता है."
जानकारों के मुताबिक भारत चाहता है कि इस इलाक़े में बिजली बने, लोगों को रोज़गार मिले और तिब्बत में बन रहे चीन के बांध के मद्देनज़र उसे सियांग नदी के पानी पर कुछ हद तक नियंत्रण भी मिल जाए.
लेकिन अरुणाचल प्रदेश के लोगों को अपना घर छूटने और सांस्कृतिक धरोहर खोने का डर है. यही नहीं, बाढ़ आने का ख़तरा भी सता रहा है.
उनका कहना है कि इन नुक़सानों की भरपाई पैसे से नहीं की जा सकती.
'सरकार चिंताओं का समाधान करेगी'
अरुणाचल प्रदेश के स्थानीय प्रशासन का कहना है कि वह सभी चिंताओं का समाधान करेगा.
सियांग ज़िले के उपायुक्त पीएन थुंगन कहते हैं, "प्लीज़ हमें पीएफ़आर यानी प्री-फीज़िबिलिटी रिपोर्ट और सर्वे करने की इजाज़त दें. जब यह पूरा हो जाएगा, तब पर्यावरण की मंज़ूरी ली जाएगी. इसके बाद हमें लगभग तीन-चार साल का समय मिलेगा. इन तीन-चार सालों में हम उनसे (विरोध कर रहे लोगों से) और बातचीत करेंगे ताकि उनकी जो भी चिंताएँ हैं, उन्हें दूर किया जा सके. मैं यक़ीन दिलाता हूँ -जनता की मंज़ूरी के बिना हम बांध का निर्माण नहीं करेंगे."
हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू के एक बयान से हलचल मच गई. इस बयान में उन्होंने कहा कि चीन अपने बांध का इस्तेमाल भारत पर 'वॉटर बॉम्ब' छोड़ने के लिए कर सकता है.
इस पर उपायुक्त पीएन थुंगन कहते हैं, "यह सुरक्षा से जुड़ा मामला है. चीन वहाँ 60 गीगावॉट (60 हज़ार मेगावॉट) का प्रोजेक्ट बना रहा है. यह इलाक़ा भूकंप के लिहाज़ से बहुत संवेदनशील है. अगर कुछ गड़बड़ हो गई या उन्होंने इसे 'वॉटर बॉम्ब' की तरह इस्तेमाल किया तो बहुत बड़ा विनाश होगा. सिर्फ़ सियांग ज़िले में नहीं बल्कि पूर्वी सियांग, असम और बांग्लादेश तक असर होगा. यह सच है."
सरकार का कहना है कि सियांग नदी पर बांध बनने से स्थानीय लोगों की सुरक्षा होगी.
लेकिन बहुत से स्थानीय लोग इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते.
पारोंग उन तीन जगहों में से एक है जहाँ डैम बनाने पर विचार किया जा रहा है.
पारोंग में रहने वाले ताबेंग सिरम कहते हैं, "चीन जो डैम बना रहा है, उस बारे में भारत सरकार को उनसे बात कर पूछना चाहिए कि वह क्यों भारत के लोगों के लिए 'वॉटर बॉम्ब' बना रहा है. चीन 60 हज़ार मेगावॉट का डैम बनाएगा. यहाँ भारत 11 हज़ार मेगावॉट का डैम बनाएगा. अगर चीन का डैम टूट गया तो भारत का डैम उस पानी को रोक नहीं पाएगा. वह भी टूट जाएगा. सारे निचले इलाक़े डूब जाएँगे. तो भारत का डैम भी भारत के लोगों के लिए 'वॉटर बॉम्ब' जैसा ही होगा."
रिउ गाँव में रहने वाले तासोंग जामोह कहते हैं, "अगर चीन की तरफ़ से 'वॉटर बॉम्ब' आएगा तो डाउनस्ट्रीम (निचले इलाक़े) तो पूरा मर जाएगा. ज़मीन भी जाएगी. लोग भी मरेंगे. निचले इलाक़े में रहने वाले लोग भी तो भारत के ही हैं."
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चीन के नए डैम को 'रन-ऑफ-द-रिवर' प्रोजेक्ट कहा जा रहा है.
इसका मतलब है कि इसमें बहुत सारा पानी जमा करने के लिए कोई बड़ा जलाशय नहीं होगा.
तो क्या नीचे के इलाक़ों में बड़े पैमाने पर बाढ़ आने की चिंताएँ जायज़ हैं?
'साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल' के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि चीन के डैम में कोई जलाशय नहीं होगा. 'रन-ऑफ-द-रिवर प्रोजेक्ट' के लिए भी एक जलाशय की ज़रूरत होती है. लेकिन ऐसे जलाशय उन प्रोजेक्ट की तुलना में बहुत छोटे होते हैं जिनमें पानी को बड़ी मात्रा में जमा करके रखा जाता है. इसलिए 'रन-ऑफ़-द-रिवर प्रोजेक्ट' में पानी जमा करने की इतनी क्षमता नहीं होती कि उसे 'वॉटर बॉम्ब' की तरह इस्तेमाल किया जा सके. इनमें वैसे बड़े जलाशय होते ही नहीं."
हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि जब तक यह पता नहीं चलता कि चीन जो प्रोजेक्ट बना रहा है, उसके आयाम क्या हैं, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि उसे 'वॉटर बॉम्ब' के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है या नहीं.
वह कहते हैं, "संयोग से ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का क़रीब 70 फ़ीसदी से 85 फ़ीसदी हिस्सा भारतीय सीमा के भीतर से आता है. ख़ासकर बाढ़ के मौसम में. तो मुझे समझ नहीं आता कि इस बांध का इस्तेमाल 'वॉटर बॉम्ब' के रूप में कैसे किया जा सकता है."
भारत और बांग्लादेश की चिंताएँ
ये चिंताएँ भी हैं कि चीन का बांध तिब्बत से भारत में आने वाले पानी की मात्रा को कम कर सकता है.
चीन में विशेषज्ञ इससे इनकार करते हैं.
चीन के फुडैन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर लिन मिनवांग कहते हैं, "यह परियोजना मुख्य रूप से बड़े बांध बनाने के बजाय मोड़ों को सीधा करने और सुरंगों के ज़रिए पानी को मोड़ने जैसे तरीक़ों का इस्तेमाल करती है. इसलिए इससे नीचे की ओर पानी के बहाव पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा."
चीन का कहना है कि उसने अपने नए बांध के बारे में भारत और बांग्लादेश से ज़रूरी बातचीत कर ली है.
चीन के फुडैन विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर शी चाओ कहते हैं, "चीन बाढ़ की जानकारी और आपदा से बचाव के लिए निचले इलाक़ों वाले देशों के साथ मिलकर काम करता है. इससे भारत जैसे देशों को फ़ायदा होता है. एक द्विपक्षीय समझौते के तहत चीन लगातार भारत के साथ पानी से जुड़ा डेटा साझा करता है."
दूसरी ओर, भारत सरकार ने हाल ही में संसद में बताया कि उसने चीन से कहा है कि वह फिर से पानी से जुड़ी जानकारी साझा करना शुरू करे. यही नहीं, सीमा पार बहने वाली नदियों पर मिलकर काम करे. एक निचले तटीय देश के तौर पर भारत ने अपनी चिंताओं को दोहराया है. पारदर्शिता और बातचीत की माँग की है ताकि निचले इलाक़ों में बसे लोगों के हित सुरक्षित रह सकें.
भारत के अलावा चिंताएँ बांग्लादेश में भी हैं.
बांग्लादेश के 'रिवराइन पीपल' नाम के संगठन के सेक्रेटरी जनरल शेख़ रोकोन नदियों और बांधों से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं.
वह कहते हैं, "ब्रह्मपुत्र नदी को बांग्लादेश की जीवनरेखा माना जाता है, क्योंकि यह पर्यावरण, खेती और नैविगेशन (नौसंचालन) के लिए बहुत ज़रूरी है. अगर इस नदी के बहाव में कोई रुकावट आती है तो इसका सीधा असर हमारे तटीय इलाक़ों और सुंदरबन के पर्यावरण पर पड़ेगा. हम भारत और चीन दोनों के बांधों को लेकर चिंतित हैं. लेकिन अगर पानी की मात्रा की बात करें तो भारत के बांध बांग्लादेश के लिए ज़्यादा चिंता की बात हैं. यहाँ असम और अरुणाचल की तरफ़ से सबसे ज़्यादा पानी आता है. यह हमारे जीवन और रोज़गार से जुड़ा हुआ मुद्दा है."
इस बीच, अरुणाचल प्रदेश में विरोध कर रहे लोग चाहते हैं कि भारत सरकार चीन से कूटनीतिक स्तर पर बातचीत करे.

'सियांग इंडिजिनस फ़ार्मर्स फ़ोरम' के महासचिव लिकेंग लिबांग कहते हैं, "मुझे लगता है कि उन्हें (भारत सरकार को) चीन की सरकार के साथ बातचीत करनी चाहिए. एक जल संधि… अंतरराष्ट्रीय जल संधि होनी चाहिए. यह जल संधि के ज़रिये किया जा सकता है क्योंकि बाक़ी पड़ोसी देशों से भी भारत के अच्छे जल संधि समझौते हैं. इसलिए उन्हें चीन की सरकार के साथ भी करना चाहिए ताकि सब कुछ कूटनीतिक तरीक़े से तय हो जाए."
तो भारत को चीन के बांध से और बांग्लादेश को चीन और भारत, दोनों के बांधों से कितनी चिंता होनी चाहिए?
'साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल' के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, "देखिए, भारत को सिर्फ़ इस हद तक चिंतित होना चाहिए कि यह प्रोजेक्ट (चीन का बांध) पानी को कैसे जमा करेगा, कैसे छोड़ेगा और बिजली कैसे बनाएगा? इससे ही पता चलेगा कि जब सियांग नदी अरुणाचल में आएगी तब इस प्रोजेक्ट का क्या असर होगा. ब्रह्मपुत्र नदी पर इस प्रोजेक्ट का ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा."
बांग्लादेश के बारे में वह कहते हैं, "जहाँ तक बांग्लादेश का सवाल है और पानी की उपलब्धता की बात है, तो बांग्लादेश पर इसका कोई असर नहीं होना चाहिए. असल में चीन ने बांग्लादेश को कूटनीतिक रूप से आश्वासन दिया है कि वह इस प्रोजेक्ट में पानी का इस्तेमाल नहीं करेगा. बस बिजली बनाएगा और फिर पानी छोड़ देगा. इसलिए बांग्लादेश को ज़्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए."

जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित विकास की वजह से पहाड़ी इलाक़ों पर दबाव बढ़ रहा है. साथ ही पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाक़ों में बड़ी परियोजनाओं के बारे में चिंताएँ भी बढ़ रही हैं.
जहाँ एशिया के दो दिग्गज देश एक बड़ी नदी के बहाव को नियंत्रित करने की होड़ में हैं, वहीं पीढ़ियों से इस नदी के किनारे बसे हुए लोगों की सबसे बड़ी फ़िक्र यही है कि इस मसले पर चल रही बातचीत से उन्हें बाहर रखा जा रहा है.
उन्होंने अपनी आवाज़ उठाई है. हालाँकि, उन्हें लगता है कि कोई उनकी बात नहीं सुन रहा है. सियांग नदी फ़िलहाल तो आज़ाद तरीक़े से बह रही है लेकिन कब तक बहेगी, यह कहना मुश्किल है.
इस नदी के पानी की तरह ही लाखों लोगों का भविष्य अधर में लटका हुआ है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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