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ईरान और इसराइल के बीच दोबारा जंग शुरू हुई तो क्या ख़ामेनेई की बढ़ जाएंगी मुश्किलें?

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EPA/Shutterstock ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई ने दावा किया है कि अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला करके भी 'कुछ हासिल नहीं किया'

पिछले हफ़्ते दुनिया की नज़र ईरान और इसराइल पर टिकी रही, क्षेत्र में ख़तरनाक टकराव की शुरुआत हुई. यह टकराव फ़िलहाल युद्ध विराम की स्थिति में है, लेकिन शांति को लेकर अब भी अनिश्चितता बनी हुई है.

13 जून को शुरू हुए इस संघर्ष ने 22 जून को एक नया मोड़ लिया, जब अमेरिका भी ईरान के ख़िलाफ़ कार्रवाई में शामिल हो गया. अमेरिका ने ईरान के नतांज़, फ़ोर्दों और इस्फ़हान जैसे परमाणु ठिकानों पर हमले किए.

इसके दो दिन बाद, 24 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और क़तर की मध्यस्थता से एक युद्ध विराम लागू किया गया, जिसने इस तनाव को अस्थायी रूप से थामने का काम किया.

इस संघर्ष ने वैश्विक बाज़ारों पर भी गहरा असर डाला है. युद्ध विराम लागू होते ही तेल की क़ीमतों में गिरावट दर्ज की गई और शेयर बाज़ारों में तेज़ी देखने को मिली. हालांकि, अगर यह युद्ध विराम टूटता है, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दोबारा संकट के बादल मंडरा सकते हैं.

अब जब यह 12 दिन लंबा संघर्ष एक विराम पर पहुंचा है, तो ऐसे में कई अहम सवाल उठ रहे हैं. क्या अमेरिका और इसराइल की सैन्य कार्रवाइयों से वास्तव में कोई रणनीतिक उद्देश्य हासिल हुआ?

एक सवाल यह भी कि जो युद्ध विराम अभी लागू है, क्या वह टिक पाएगा? क्या इस पूरे मसले का कोई स्थायी कूटनीतिक हल निकल सकता है?

क्या इसराइल की मंशा ईरान में सत्ता परिवर्तन है और भारत इस पूरे संघर्ष में किस तरह संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है.

बीबीसी हिंदी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सब मुद्दों पर चर्चा की.

इन तमाम सवालों पर चर्चा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से अंतरराष्ट्रीय संबंधों और विश्व राजनीति के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अचिन वनइक, ग्रेटर वेस्ट एशिया फ़ोरम की अहम सदस्य डॉक्टर मंजरी सिंह और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ के पूर्व डीन प्रोफे़सर अश्विनी कुमार मोहापात्रा शामिल हुए.

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अमेरिका-इसराइल को किस बात का डर है? image Reuters 26 जून को जारी अपने वीडियो संदेश में ख़ामेनेई ने कहा कि डोनाल्ड ट्रंप ने अनजाने में एक सच्चाई उजागर कर दी है कि अमेरिका शुरू से ही ईरान के ख़िलाफ़ रहा है

साल 1948 में जब इसराइल की स्थापना हुई, उस वक़्त तुर्की के बाद ईरान, इसराइल को मान्यता देने वाला दूसरा मुस्लिम बहुल देश बना. उस दौर में इसराइल और ईरान के रिश्ते दोस्ताना थे, लेकिन बाद में हालात बिल्कुल बदल गए और दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बन गए.

ईरानी परमाणु कार्यक्रम को रोकना और उसे परमाणु हथियार संपन्न बनने से रोकना, इसराइल का प्रमुख लक्ष्य है.

इसराइल का मानना है कि ईरान के पास परमाणु हथियार होना उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा है. अमेरिका के साथ इसराइल के अच्छे संबंध हैं. यही वजह है कि अमेरिका और इसराइल को डर है कि अगर ईरान के पास परमाणु बम हो गया तो फिर वह उसके लिए एक बड़ा ख़तरा बन सकता है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ के पूर्व डीन, प्रोफ़ेसर अश्विनी कुमार मोहापात्रा कहते हैं, "अमेरिका और इसराइल इस बात को लेकर ज़्यादा चिंतित हैं कि वेस्ट एशिया एक संघर्ष ग्रस्त इलाक़ा है."

उन्होंने कहा, "ईरान के आसपास के देश भी इस स्थिति से चिंतित हैं. सऊदी अरब, यूएई और मिस्र जैसे देश नहीं चाहते कि ईरान के पास परमाणु बम हो. इसी कारण वे इस मुद्दे पर कहीं न कहीं इसराइल का परोक्ष रूप से समर्थन करते हैं."

अश्विनी कुमार के अनुसार, "अगर ईरान परमाणु हथियार हासिल कर लेता है, तो इसके बाद अन्य देश भी ऐसा ही करने की कोशिश करेंगे. इस क्षेत्र में संघर्ष कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं होता, इसलिए यह स्थिति केवल अमेरिका और इसराइल ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक बड़ा ख़तरा बन सकती है."

प्रोफ़ेसर मोहापात्रा ने बताया कि, "रूस, चीन और भारत, तीनों का रुख़ यही है कि ईरान परमाणु शक्ति न बने. हालांकि इसराइल के लिए यह ख़तरा ज़्यादा बड़ा है, लेकिन इससे पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंता भी जुड़ी हुई है."

इस पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफे़सर अचिन वनइक कहते हैं, "यह जो कहा जा रहा है कि अमेरिका और इसराइल परमाणु ठिकानों को ख़त्म करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें डर है, यह दरअसल एक तरह का बहाना है. और इसी बहाने के साथ अमेरिका भी आगे बढ़ रहा है."

अचिन वनइक ने कहा, "इसराइल एकमात्र ऐसा देश है जो लगातार यह दावा करता है कि उसकी ज़िंदगी ख़तरे में है. मुझे हैरानी होती है कि इतने लोग इस बात को बिना सवाल किए स्वीकार कर लेते हैं."

उन्होंने कहा, "इसराइल की सेना इतनी मज़बूत है कि अगर सारे अरब देश मिल भी जाएं, तब भी उसे हराना आसान नहीं होगा. इसके अलावा, अमेरिका जैसी दुनिया की सबसे शक्तिशाली सैन्य ताक़त उसके पीछे खड़ी है. इसके बावजूद इसराइल बार-बार यही कहता रहता है कि वह ख़तरे में है."

ईरान की मंशा पर सवाल उठाते आए हैं अमेरिका-इसराइल image EPA/Shutterstock ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई ने ट्रंप पर आरोप लगाया है कि उन्होंने जो हुआ उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है

इसराइल और अमेरिका शुरुआत से ईरान की मंशा पर सवाल उठाते आए हैं. दोनों का कहना है कि ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना चाहिए. यही कारण है कि बीते हफ़्ते अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया.

ईरान हमेशा से कहता रहा है कि वह नागरिक इस्तेमाल के लिए संवर्धन कर रहा है, लेकिन अमेरिका और इसराइल का दावा है कि अगर ईरान को रोका नहीं गया तो वह कभी भी परमाणु हथियार विकसित कर सकता है.

इसराइल और अमेरिका लंबे समय से ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लेकर संदेह जताते रहे हैं. दोनों देशों का मानना है कि ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने से रोका जाना चाहिए.

ईरान का आधिकारिक रुख़ यह रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से शांतिपूर्ण और नागरिक उद्देश्यों, जैसे ऊर्जा उत्पादन के लिए है. हालांकि, अमेरिका और इसराइल का तर्क है कि अगर ईरान को रोका नहीं गया, तो वह आने वाले दिनों में परमाणु हथियार विकसित कर सकता है.

इस मुद्दे पर ग्रेटर वेस्ट एशिया फ़ोरम की सदस्य, डॉक्टर मंजरी सिंह ने कहा, "जब आप किसी देश के परमाणु शक्ति बनने की बात करते हैं, तो सबसे अहम सवाल यह होता है कि उसकी मंशा क्या है."

उन्होंने बताया, "ईरान यह कहता रहा है कि वह इसराइल को मान्यता नहीं देता, साथ ही उसे मध्य पूर्व के नक्शे से मिटा देना चाहता है."

मंजरी सिंह ने कहा, "इसी वजह से जब बात ईरान जैसे देश के परमाणु हथियार रखने की होती है, तो चिंता यह होती है कि वह इन्हें अपने प्रॉक्सी समूहों को भी दे सकते हैं और उसके हिसाब से फिर हमला कर सकते हैं."

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सत्ता परिवर्तन की कोशिश image Reuters आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई 86 साल के हैं और बीते साढ़े तीन दशकों से ईरान के सर्वोच्च नेता के पद पर हैं

इसराइल के साथ हुए युद्ध को लोग अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं. कुछ का मानना है कि ईरान ने इसराइल पर जीत हासिल की है, लेकिन ईरान के लोगों की एक बड़ी संख्या देश के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई को इसराइल और अमेरिका से टकराव की स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मानती है.

इसराइल और अमेरिका की ओर से खुले तौर पर ईरान में 'सत्ता परिवर्तन' की संभावना की चर्चा की गई है. संघर्ष के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह दावा भी किया था कि उन्हें पता है ख़ामेनेई कहां छिपे हैं, लेकिन वह उन्हें अभी मारना नहीं चाहते.

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी देश में सैन्य हस्तक्षेप अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के दायरे में आता है.

इस मुद्दे पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफे़सर अचिन वनइक ने कहा, "अगर कोई देश परमाणु हथियार बनाना चाहता है, तो हम उसका विरोध ज़रूर कर सकते हैं, लेकिन किसी दूसरे देश को यह अधिकार नहीं है कि वह उस पर हमला करे. लोग भूल जाते हैं कि एक अंतरराष्ट्रीय क़ानून भी है, जिसके अनुसार कोई भी देश किसी और देश पर सैन्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता."

उन्होंने कहा, "अगर किसी देश में अधिनायकवादी शासन है और उसे हटाना है, तो यह केवल उस देश की जनता का अधिकार है, किसी बाहरी देश का नहीं."

इस मुद्दे पर प्रोफ़ेसर अश्विनी कुमार मोहापात्रा ने कहा कि ईरान में सत्ता परिवर्तन अमेरिका का कोई घोषित या दीर्घकालिक मक़सद नहीं है, लेकिन वह यह ज़रूर चाहता है कि 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद जो शासन बना, वह इतना कमज़ोर हो जाए कि भविष्य में आने वाली सरकार अमेरिका और इसराइल के लिए ख़तरा न बने.

उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि इस बमबारी से ईरान की सत्ता हिल जाएगी, लेकिन 12 दिनों तक चली हालिया लड़ाई ने ईरान पर काफ़ी दबाव बना दिया है."

अश्विनी कुमार के अनुसार, "ईरान में ऐसे बहुत से लोग हैं जो मौजूदा सरकार से असंतुष्ट हैं, इसलिए यह मुमकिन है कि ईरानी सरकार अमेरिका से समझौता करके मौजूदा संकट से बाहर निकलने की कोशिश करे."

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क्या युद्ध ख़त्म हो गया है? image Getty Images ईरान और इसराइल के बीच ट्रंप और क़तर की मध्यस्थता से एक युद्ध विराम लागू किया गया

इसराइल और ईरान के बीच 12 दिन तक चले सैन्य संघर्ष का समापन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से घोषित युद्ध विराम के साथ हुआ.

हालांकि युद्ध को लेकर आशंकाएं बरक़रार हैं. इन आशंकाओं की एक बड़ी वजह यह है कि युद्ध विराम के तुरंत बाद दोनों देशों, इसराइल और ईरान, ने संघर्ष में अपनी-अपनी जीत के दावे किए हैं.

साथ ही, दोनों पक्षों की ओर से बयानबाज़ी और धमकियों का सिलसिला भी जारी है. इससे तनावपूर्ण माहौल बना हुआ है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में यह चिंता गहराई है कि यह संघर्ष कहीं फिर से न भड़क उठे.

ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या कूटनीतिक प्रयास युद्ध विराम को टिकाऊ बनाने में सफल होते हैं, या यह केवल एक अस्थायी विराम साबित होगा.

इस सवाल पर ग्रेटर वेस्ट एशिया फ़ोरम की सदस्य, डॉक्टर मंजरी सिंह ने कहा, "अभी जो युद्ध हुए हैं, वे दरअसल एक नए अध्याय की शुरुआत करते हैं. इसमें कोई स्पष्ट विजेता नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता कि ईरान जीता या इसराइल. यह युद्ध अब एक ग्रे ज़ोन में चला गया है, जहां बात युद्ध और शांति के बीच की स्थिति की होगी."

उन्होंने बताया, "ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर इसराइल और अमेरिका की चिंता इसलिए भी है क्योंकि ईरान यूरेनियम एनरिचमेंट से जुड़ा डेटा साझा नहीं कर रहा है. अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की जांच में पता चला कि ईरान ने 60 फ़ीसदी से अधिक यूरेनियम एनरिच कर लिया है, जो कभी भी हथियार बनाने के क़ाबिल हो सकता है."

मंजरी सिंह ने कहा, "यूरेनियम एनरिचमेंट का स्तर नागरिक उपयोग और हथियारों के उपयोग के लिए अलग होता है. ईरान का एनरिचमेंट नागरिक इस्तेमाल के स्तर पर नहीं, बल्कि हथियार बनाने के स्तर पर है. यही वजह है कि इसे लेकर इतनी चिंता है."

उन्होंने कहा कि यहां पर असल मुद्दा वर्चस्व का है. ईरान खुद को सबसे बड़ी क्षेत्रीय शक्ति मानता है और अगर इतिहास देखें तो उसकी यह बात कुछ हद तक सही भी लगती है.

मंजरी सिंह ने कहा कि वहीं इसराइल का कहना है कि इस क्षेत्र में उसका भी अस्तित्व है और उसे अपनी सुरक्षा के लिए ख़ुद को मज़बूत करना ही होगा.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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