नई दिल्ली, 5 जुलाई . ये कहानी है एक ऐसी महिला की, जिसने उस दौर में क्रांति की मशाल जलाई, जब समाज में महिलाएं सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित थीं. लक्ष्मीबाई केलकर, जिन्हें प्यार से ‘मौसी जी’ कहा जाता है, ने अपने साहस, आत्मबल और राष्ट्रप्रेम से भारतीय नारियों को आत्मनिर्भरता और सेवा का नया रास्ता दिखाया. वह एक विचारधारा थीं जो आज भी जीवित है.
6 जुलाई 1905 को नागपुर में जन्मी लक्ष्मीबाई केलकर का जीवन प्रारंभ से ही सामान्य नहीं रहा. महज 14 वर्ष की आयु में वर्धा के एक विधुर वकील पुरुषोत्तम राव केलकर से उनका विवाह हुआ. वे छह संतानों की मां बनीं. यह सफर आसान नहीं था. 1932 में जब पति का निधन हुआ, तब उनके सामने न केवल अपने बच्चों की परवरिश, बल्कि एक ननद की जिम्मेदारी भी थी. विधवा होने के बावजूद लक्ष्मीबाई ने कभी अपने आत्मबल को कमजोर नहीं होने दिया. उन्होंने घर के दो कमरे किराए पर दिए और चरखा चलाकर आत्मनिर्भरता की राह चुनी. इस आत्मबल का ही परिणाम था कि एक दिन गांधी जी की सभा में उन्होंने अपनी सोने की चेन उतारकर दान कर दी. यह उस समय की महिला की सोच से परे होकर उठाया गया बड़ा कदम था.
उनके बेटे जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने लगे और उनके आचरण में अनुशासन, संस्कार और राष्ट्रप्रेम का विकास लक्ष्मीबाई ने महसूस किया, तब वह स्वयं भी इस विचारधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित हुईं. इसी कड़ी में डॉ. हेडगेवार से हुई उनकी मुलाकात निर्णायक साबित हुई. उन्होंने महिलाओं के लिए भी एक समानांतर संगठन की आवश्यकता महसूस की, जो उन्हें आत्मनिर्भर, संस्कारित और राष्ट्रसेवा के लिए प्रेरित कर सके.
इस सोच का ही परिणाम था कि 1936 में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना हुई, एक ऐसा संगठन जिसमें स्त्रियों के नेतृत्व को मान्यता मिली और उन्हें सामाजिक व राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में सक्रिय भूमिका मिली. उस दौर में यह कल्पना करना भी कठिन था कि महिलाएं हथियार चलाना, योग करना, परिश्रम करना और नेतृत्व करना सीखेंगी, लेकिन ‘मौसी जी’ ने यह कर दिखाया.
राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापक होने के बावजूद लक्ष्मीबाई केलकर को किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं थी. वे सेविकाओं के बीच ‘मौसी जी’ के नाम से जानी जाती थीं. एक ऐसी मौसी जो प्रेम देती थी, मार्गदर्शन करती थी. उनकी वाणी इतनी सशक्त और भावनात्मक होती थी कि प्रवचन सुनने वाले श्रोताओं की आंखें नम हो जाती थीं. रामायण के माध्यम से वे जीवन के आदर्शों और नीति-सिद्धांतों को महिलाओं में जागृत करती थीं.
1947 में जब देश स्वतंत्रता की ओर अग्रसर था और विभाजन की आशंका सिर पर मंडरा रही थी, तब मौसी जी कराची में थीं. उस समय उन्होंने सेविकाओं को प्रेरित करते हुए कहा कि हर परिस्थिति का साहस से सामना करो और अपने आत्मबल व पवित्रता को बनाए रखो. यही सच्ची राष्ट्रसेवा है. उनकी यह प्रेरणा तब की महिलाओं को अराजकता से उबारने का एक आध्यात्मिक कवच बन गई.
27 नवंबर 1978 को जब मौसी जी ने इस दुनिया को अलविदा कहा, तब तक वे अपने पीछे एक ऐसा संगठन छोड़ चुकी थीं, जो आज भी लाखों महिलाओं के जीवन को दिशा दे रहा है. आज ‘राष्ट्र सेविका समिति’ केवल एक संगठन नहीं है, यह स्वाभिमान की, नारी-शक्ति की और राष्ट्रप्रेम की एक विचारधारा है.
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पीएसके/केआर
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