नई दिल्ली, 22 जून . आज जब हम आधुनिक भारत के नींव के पत्थरों की बात करते हैं, तो एक नाम जो गर्व से उभरता है, वह है डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम. एक महान् शिक्षाविद्, प्रखर चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक, जिन्होंने अपने विचारों और कर्मों से देश की दिशा बदल दी. उनकी कहानी ऐसी है, जो हर भारतीय को प्रेरित करती है. एक ऐसी शख्सियत, जिसने शिक्षा, राजनीति और राष्ट्रीय एकता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया.
6 जुलाई 1901 में कोलकाता में जन्मे श्यामा प्रसाद का जीवन शुरू से ही असाधारण था. उनके पिता आशुतोष मुखर्जी एक प्रसिद्ध शिक्षाविद् और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे. शायद यही वजह थी कि श्यामा प्रसाद के मन में शिक्षा के प्रति गहरा लगाव पैदा हुआ. उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी की और मात्र 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए, यह उस समय का रिकॉर्ड था. उनके नेतृत्व में विश्वविद्यालय ने नई ऊंचाइयों को छुआ और शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का उनका सपना साकार होने लगा.
श्यामा प्रसाद सिर्फ़ किताबों तक सीमित नहीं रहे. उनका दिल देश की आजादी और एकता के लिए धड़कता था. 1940 के दशक में जब देश आजादी की जंग लड़ रहा था, उन्होंने हिंदू महासभा के साथ मिलकर काम किया. फिर 1951 में उन्होंने एक ऐतिहासिक कदम उठाया, वो ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना थी, जो आज की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का बीज था. उनका मकसद एक ऐसा भारत, जो सांस्कृतिक रूप से एकजुट हो और हर नागरिक को समान अधिकार मिले.
‘एक राष्ट्र, एक निशान, एक विधान’ के प्रणेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के लिए देशहित से ऊपर कुछ नहीं था. जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के खिलाफ उनकी आवाज बुलंद थी. उनका मानना था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और इसे विशेष दर्जा देकर देश की एकता को कमजोर नहीं किया जा सकता. 23 जून 1953 में इस मुद्दे पर आंदोलन के दौरान उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई. उनकी शहादत ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया और उनके सपने को जिंदा रखा.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं. उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चाई और साहस के साथ कोई भी बड़ा बदलाव लाया जा सकता है. उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं. चाहे शिक्षा का प्रसार हो, राष्ट्रीय एकता हो या सांस्कृतिक गौरव की बात, उनका दर्शन आज के युवाओं के लिए मार्गदर्शक है.
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एकेएस/केआर
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