नई दिल्ली: देश राष्ट्र गीत 'वंदे मातरम्' के 150वें वर्ष का उत्सव मना रहा है। भारत के संविधान निर्माताओं ने 'वंदे मातरम्' को वही दर्जा दिया है, जो राष्ट्र गान को प्राप्त है। बहुत कम लोगों को पता है कि भारत के राष्ट्र ध्वज तिरंगे की जो विकास यात्रा शुरू हुई, उसमें 'वंदे मातरम्' राष्ट्र गीत की बहुत ही अहम भूमिका है। देश ने पहली बार स्वतंत्र भारत की परिकल्पना के साथ जो अपना ध्वज फहराया था, वह भले ही अनाधिकारिक रहा हो, लेकिन उसके बीचों बीच में राष्ट्र के प्रतीक के तौर पर संस्कृत के दो शब्द 'वंदे मातरम्' ही उकेरा गया था।
वंदे मातरम्, जन-गण-मन का दर्जा समान
आजाद भारत में संविधान सभा के सभी सदस्यों ने 'वंदे मातरम्' को राष्ट्र गीत के तौर पर सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। 24 जनवरी, 1950 को जब देश के संविधान को अपनाने की घोषणा की जा रही थी, तब देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 'वंदे मातरम्' को राष्ट्र गीत का दर्जा देने की घोषणा की। तब उन्होंने कहा था,'वंदे मातरम् का गान, जिसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक महत्त्व रहा है, जन-गण-मन के समान ही सम्मान किया जाएगा और उसका पद उसके समान ही होगा;और दोनों को ही समान दर्जा प्राप्त होगा।'
संन्यासी विद्रोह पर आधारित पृष्ठभूमि
150 साल पहले महान स्वतंत्रता सेनानी बंकिम चंद्र चटर्जी की लिखी 'वंदे मातरम्' गीत करोड़ों देशवासियों की देश भक्ति का प्रतीक रही है। इस देश भक्ति गीत ने स्वतंत्रता संग्राम की दशा और दिशा बदलने में जितना योगदान दिया, उसे कुछ शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस गीत की पृष्ठभूमि संन्यासी विद्रोह पर आधारित रही है।
संन्यासी विद्रोह क्यों भड़का था
इसकी रचना उस दौर में की गई जब 1870 के दशक में बंगाल भीषण अकाल की चपेट में आया था। यह वो कालखंड था जब अंग्रेजी कुशासन और शोषण से पीड़ित जनता तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही थी। इसी के खिलाफ लोगों को जगाने के लिए संन्यासी विद्रोह भड़का था।
अक्षय नवमी के दिन हुई रचना
'वंदे मातरम्' बंकिम चंद्र चटर्जी के पवित्र उपन्यास आनंदमठ का एक हिस्सा है। यही वो काल था, जब अंग्रेजी हुकूमत ने एक तुगलकी फरमान जारी कर भारत में 'गॉड सेव द क्वीन' नामक गीत गाए गाने को कहा था। ब्रिटिश हुकूमत के इस फैसले के खिलाफ महान साहित्कार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 7 नवंबर, 1875 को अक्षय नवमी के दिन इस महान देश भक्ति गीत 'वंदे मातरम्' की रचना की। देखते ही यह गीत राष्ट्र के प्रति भक्ति, समर्पण और अमरता का प्रतीक बन गई।
पहली बार तिरंगे पर 'वंदे मातरम्'
'वंदे मातरम्' की लोकप्रियता की वजह से ही जब गुलामी के काल में पहली बार भारत का एक तिरंगा सामने आया तो उसमें संस्कृत के इन दोनों ही पवित्र शब्दों को उकेरा गया था। 1906 में जब देश में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन चल रहा था, तब पहली बार कलकत्ता (कोलकाता) के पारसी बगान स्कॉयर में यह तिरंगा फहराया गया था, जिस पर 'वंदे मातरम्'लिखा हुआ था। इस झंडे का ऊपरी हिस्सा हरा था, जिसपर 8 कमल निशान, बीच में पीली और नीचे लाल रंग वाली पट्टी थी।
1907 में भी 'वंदे मातरम्'वाला तिरंगा
एक साल बाद ही 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में भी कुछ संशोधन के साथ एक तिरंगा फहराया। इसमें ऊपर केसरिया, बीच में पीली और नीचे हरी रंग की पट्टी थी, लेकिन 'वंदे मातरम्' अपनी जगह कायम था। इस बार ऊपर की केसरिया पट्टी पर 8 कमल निशान उकेरे गए थे। हालांकि, जुलाई 1947 में राष्ट्र ध्वज के रूप में जिस तिरंगे को अपनाया, वह इनसे पूरी तरह से अलग है।
वंदे मातरम्, जन-गण-मन का दर्जा समान
आजाद भारत में संविधान सभा के सभी सदस्यों ने 'वंदे मातरम्' को राष्ट्र गीत के तौर पर सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। 24 जनवरी, 1950 को जब देश के संविधान को अपनाने की घोषणा की जा रही थी, तब देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 'वंदे मातरम्' को राष्ट्र गीत का दर्जा देने की घोषणा की। तब उन्होंने कहा था,'वंदे मातरम् का गान, जिसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक महत्त्व रहा है, जन-गण-मन के समान ही सम्मान किया जाएगा और उसका पद उसके समान ही होगा;और दोनों को ही समान दर्जा प्राप्त होगा।'
संन्यासी विद्रोह पर आधारित पृष्ठभूमि
150 साल पहले महान स्वतंत्रता सेनानी बंकिम चंद्र चटर्जी की लिखी 'वंदे मातरम्' गीत करोड़ों देशवासियों की देश भक्ति का प्रतीक रही है। इस देश भक्ति गीत ने स्वतंत्रता संग्राम की दशा और दिशा बदलने में जितना योगदान दिया, उसे कुछ शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस गीत की पृष्ठभूमि संन्यासी विद्रोह पर आधारित रही है।
संन्यासी विद्रोह क्यों भड़का था
इसकी रचना उस दौर में की गई जब 1870 के दशक में बंगाल भीषण अकाल की चपेट में आया था। यह वो कालखंड था जब अंग्रेजी कुशासन और शोषण से पीड़ित जनता तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही थी। इसी के खिलाफ लोगों को जगाने के लिए संन्यासी विद्रोह भड़का था।
अक्षय नवमी के दिन हुई रचना
'वंदे मातरम्' बंकिम चंद्र चटर्जी के पवित्र उपन्यास आनंदमठ का एक हिस्सा है। यही वो काल था, जब अंग्रेजी हुकूमत ने एक तुगलकी फरमान जारी कर भारत में 'गॉड सेव द क्वीन' नामक गीत गाए गाने को कहा था। ब्रिटिश हुकूमत के इस फैसले के खिलाफ महान साहित्कार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 7 नवंबर, 1875 को अक्षय नवमी के दिन इस महान देश भक्ति गीत 'वंदे मातरम्' की रचना की। देखते ही यह गीत राष्ट्र के प्रति भक्ति, समर्पण और अमरता का प्रतीक बन गई।
पहली बार तिरंगे पर 'वंदे मातरम्'
'वंदे मातरम्' की लोकप्रियता की वजह से ही जब गुलामी के काल में पहली बार भारत का एक तिरंगा सामने आया तो उसमें संस्कृत के इन दोनों ही पवित्र शब्दों को उकेरा गया था। 1906 में जब देश में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन चल रहा था, तब पहली बार कलकत्ता (कोलकाता) के पारसी बगान स्कॉयर में यह तिरंगा फहराया गया था, जिस पर 'वंदे मातरम्'लिखा हुआ था। इस झंडे का ऊपरी हिस्सा हरा था, जिसपर 8 कमल निशान, बीच में पीली और नीचे लाल रंग वाली पट्टी थी।
1907 में भी 'वंदे मातरम्'वाला तिरंगा
एक साल बाद ही 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में भी कुछ संशोधन के साथ एक तिरंगा फहराया। इसमें ऊपर केसरिया, बीच में पीली और नीचे हरी रंग की पट्टी थी, लेकिन 'वंदे मातरम्' अपनी जगह कायम था। इस बार ऊपर की केसरिया पट्टी पर 8 कमल निशान उकेरे गए थे। हालांकि, जुलाई 1947 में राष्ट्र ध्वज के रूप में जिस तिरंगे को अपनाया, वह इनसे पूरी तरह से अलग है।
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